संविधान हत्या दिवस पर लोकतंत्र सेनानियों के संघर्ष को किया गया नमन
लोकतंत्र सेनानियों ने बताए संस्मरण
हनुमानगढ़। आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में 25 जून 2025, बुधवार को कलेक्ट्रेट सभागार, हनुमानगढ़ में संविधान हत्या दिवस का आयोजन किया गया। इस अवसर पर आपातकाल के दौरान संघर्ष करने वाले लोकतंत्र सेनानियों को सम्मानित किया गया तथा उस दौर की घटनाओं और पीड़ाओं पर विचार-विमर्श किया गया।कार्यक्रम की शुरुआत लोकतंत्र सेनानियों के अभिनंदन एवं पुष्पार्पण से हुई। इस दौरान सेनानियों ने अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि कैसे "ना दलील, ना अपील, ना वकील, सिर्फ डंडों की मार" की स्थिति में उन्होंने लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए जेलों की यातनाएं सही, परिवार और भविष्य को दांव पर लगाया, लेकिन झुके नहीं। लोकतंत्र सेनानी श्री राजकुमार जैन, श्री बलवंत सिंह एवं श्री श्याम सुंदर बंसल ने अपने संस्मरण सुनाते हुए बताया कि किस प्रकार आवाज़ उठाना, संगठन करना और विरोध दर्ज कराना उस समय गुनाह बना दिया गया था। उन्होंने युवाओं को लोकतंत्र की कीमत समझने और उसकी रक्षा के लिए सदैव सजग रहने का संदेश दिया। समारोह में जिला कलेक्टर डॉ. खुशाल यादव, पुलिस अधीक्षक श्री हरीशंकर, बीजेपी जिलाध्यक्ष श्री प्रमोद डेलू, जनप्रतिनिधि श्री अमित सहू, श्री देवेंद्र पारीक, श्री विकास गुप्ता, अतिरिक्त जिला कलक्टर श्री उम्मेदी लाल मीना, जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी श्री ओपी बिश्नोई सहित सभी जिला स्तरीय अधिकारी, विचारक, समाजसेवी तथा लोकतंत्र सेनानियों के परिजन उपस्थित रहे। मंच संचालन श्री भीष्म कौशिक ने किया।
आपातकाल के "जिंदा शहीद" राजकुमार जैन: जिन्होंने देश के लोकतंत्र के लिए जेल में झेला अत्याचार
हनुमानगढ़। 1975 में देश पर थोपे गए आपातकाल के विरोध में पंजाब के फाजिल्का में सत्याग्रह कर गिरफ्तार हुए युवाओं में राजकुमार जैन एक प्रमुख नाम हैं। तत्कालीन सरकार के दमनकारी दौर में जब बोलना भी अपराध था, तब राजकुमार जैन और उनके चार साथियों – प्रेम फुटेला, सुभाष फुटेला, जनक झाम्ब, महेश गुप्ता – ने सत्याग्रह कर लोकतंत्र की रक्षा के लिए जेल और अमानवीय यातनाए झेलीं।
राजकुमार जैन, जो वर्तमान में हनुमानगढ़ टाउन के वार्ड 18 में निवास करते हैं, ने 14 नवम्बर 1975 को फाजिल्का में सत्याग्रह किया। पुलिस कस्टडी में उन्हें आतंकियों जैसा ट्रीटमेंट दिया गया — बर्फ पर लिटाना, मिर्चों वाली बोरियों में बंद करना, नग्न कर पीटना, चूहों से यातना देना जैसे अमानवीय कृत्य सहन किए। फिरोजपुर जेल में भूख हड़ताल के बाद उन्हें राजनीतिक कैदियों की बैरक में स्थानांतरित किया गया। बी.ए. की पढ़ाई भी आपातकाल के दौरान जेल से ही पूरी करने वाले राजकुमार जैन संघ और विद्यार्थी परिषद से जुड़कर वर्षों से राष्ट्रसेवा में सक्रिय रहे हैं। भारत विकास परिषद, विद्या भारती, लोकतंत्र सेनानी संघ जैसे संगठनों में उन्होंने विभिन्न पदों पर कार्य किया। वह कहते हैं कि “आज की पीढ़ी सोशल मीडिया पर खुलकर बोल सकती है, यह उस संघर्ष का फल है जो हमने आपातकाल में झेला।”
कैद दरकती नहीं थी, पर आत्मा कांप उठती थी– श्याम सुंदर बंसल की आपातकालीन गवाही
हनुमानगढ़। रिहा तो हो गया, लेकिन मोहल्ले की नजरें अब भी मुझे सवाल की तरह देखती थीं— यह कथन है आपातकाल (1975–77) के दौरान जेल यातना झेल चुके लोकतंत्र सेनानी श्याम सुंदर बंसल का, जो वर्तमान में हनुमानगढ़ में निवासरत हैं। 28 मार्च 1952 को सिरसा (हरियाणा) में जन्मे बंसल, नेशनल कॉलेज सिरसा में पढ़ाई के दौरान आरएसएस व विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए। 17 नवंबर, 1975 को उन्होंने साथियों के साथ सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारी दी। पहले सिरसा और फिर हिसार जेल में 5-6 महीने की कैद के दौरान उन्होंने अनेक मानसिक और सामाजिक यातनाए झेली। उनके अनुसार, जेल में प्रो. गणेशीलाल (वर्तमान उड़ीसा राज्यपाल) और रामबिलास शर्मा (पूर्व शिक्षा मंत्री) जैसे विचारशील लोग भी उनके साथ बंद थे। वे बताते हैं कि हमें गालियां दी गईं, मारा गया, समाज से काटा गया पर आत्मबल नहीं टूटा।
रिहाई के बाद भी सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ा। लेकिन वर्ष 2018 में वसुंधरा राजे सरकार द्वारा उन्हें लोकतंत्र सेनानी की मान्यता और पेंशन स्वीकृत की गई। वर्तमान सरकार द्वारा अब इस सम्मान को स्थायित्व दिया गया है — जिसमें 20,000 रुपए मासिक पेंशन, 4,000 रुपए चिकित्सा सहायता व रोडवेज में मुफ्त यात्रा जैसी सुविधाए दी जा रही हैं। श्याम सुंदर बंसल के दो पुत्र और एक पुत्री हैं, सभी व्यवसायक रूप से स्थापित हैं। परंतु उनके अनुसार, “हमारे त्याग का सबसे बड़ा पुरस्कार यही है कि आज का भारत स्वतंत्र विचारों की खुली हवा में सांस ले रहा है।
आपातकाल में 'दर्पण' जलाया गया, विचार नहीं: लोकतंत्र सेनानी बलवंत सिंह की गाथा
हनुमानगढ़। “जिस दिन मेरी गिरफ्तारी हुई, उसी दिन एक साथी की बेटी का जन्म हुआ, उसका नाम ‘इमरजेंसी’ रखा गया।” — यह संवाद उस दौर की प्रतिध्वनि है जब 1975 में भारत में घोषित आपातकाल ने लोकतंत्र की सांसें रोक दी थीं। लोकतंत्र सेनानी संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व हरियाणा प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष बलवंत सिंह का जीवन इसी संघर्ष का प्रतीक है। 30 दिसंबर 1953 को जन्मे बलवंत सिंह, आरएसएस प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे और छात्र जीवन से ही विचारधारा के लिए समर्पित रहे। आपातकाल में उन्होंने भूमिगत अख़बार ‘दर्पण’ को हरियाणा के कई जिलों में वितरित किया। जैसे ही सरकार को भनक लगी, अखबार की प्रेस जला दी गई और बलवंत सिंह के खिलाफ वारंट जारी हुआ। उन्हें 20 दिन तक अज्ञातवास में रहना पड़ा। 14 नवम्बर 1975 को सिरसा के भगत सिंह चौक से सत्याग्रह करते समय गिरफ्तार किया गया और सिरसा व हिसार की जेलों में रखा गया।
बलवंत सिंह के अनुसार, “पुलिस हमें युवा कांग्रेस में शामिल होने और माफीनामा लिखने का दबाव देती रही, पर हमने विचार नहीं छोड़ा।” वो बताते हैं, “जिस कोड़े से पीटा गया, उस पर ‘आन मिलो सजना’ लिखा था — यह सत्ता की क्रूरता का प्रतीक था। ”जेल में उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री देवीलाल, लोकबंधु राजनारायण जैसे नेताओं के साथ रखा गया। एक घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया, “एक बैरक में भाई-बहन को निर्वस्त्र रखे जाने की घटना आज भी मन को झकझोर देती है।”